गीत- तुम तो वापस लौट आओ.... बन गया जीवन तमाशा, मन का कोई स्वर सुनाओ। तुम तो वापस लौट आओ।। शब्द हैं पर मौन सारे, अर्थ जैसे धूल बनकर, हास्य के ही भीड़ में, भाव भी हैं झूठ बनकर। नाटक सजे,पर्दे उठे पर जंग जीवन बन गया, खुद से मिलना भूल बैठे दीप्ति कहीं पे सो गया छल- प्रपंचों की ये माया, तोड़ दो, सच को जगाओ। तुम तो वापस लौट आओ।। भावनाओं की नुमाइश, मंच पर होती निरंतर, दर्द पर भी तालियां हैं,स्वार्थ में है आंख अंबर। मन के भीतर मौन मानव का कोई सुनता नहीं, मुस्कुराहट की लपेटें, अब हृदय को चुभ रहीं। जो मुखौटे ओढ़ बैठे, उनको तुम सच से हटाओ। तुम तो वापस लौट आओ।। दर्पणों में धुंध सी है, और चेहरा पूछता है, मैं कहां हूं? कौन हूं मैं? आत्मा ये खोजता है। शब्द जो शृंगार थे कल, आज केवल रंग हैं, बोलते हैं पर न उनमें भाव का ही ढंग है। तुम जो नाटक से घबराए, मन की तुम...