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कोरोनाकाल की रचना जनता की सुरक्षा सर्वोपरि थी पर, लगी-लगाई रोजी-रोटी छुड़वा दी है-

कोरोनाकाल की रचना जनता की सुरक्षा सर्वोपरि थी पर, लगी-लगाई रोजी-रोटी छुड़वा दी है-

जनता की सुरक्षा सर्वोपरि थी पर,
लगी-लगाई रोजी-रोटी छुड़वा दी है।

प्रकृति दोहन से आखिर ज्वाला निकल गयी,
महामारी मन से आखिर भेद निकल गयी।
तो ! दिल्ली  यदि  दिल  वाली  होती ,
सड़कों पर भूख तड़पती जनता न होती।

जनता की सुरक्षा सर्वोपरि थी पर,
लगी-लगाई रोजी-रोटी छुड़वा दी है।

गलियाँ - कूची छुपते - छुपाते निकल रहे,
क्योंकि, सपनों का शहर मुँह फाड़ रही।
हे! ईश्वर तुमने पेट का क्या खेल-खेला
कुम्भकरणी नींद से किस्मत नहीं जाग रही।

जनता की सुरक्षा सर्वोपरि थी पर ,
लगी-लगाई रोजी-रोटी छुड़वा दी है।

सुना है धन की कमी नहीं है धरा पर ,
कर्म करो दोनों हाथ समेट लो सब।
प्रिय! भूख के बदले, भूख  को  खाकर 
गरीबी सड़कों पर भूखे चलती - सोती है।

शहरों में धन के उपक्रम बहुत हैं पर,
खाली  हाथ  निकल  चले  हम  सब।
जालिम "कोरोना" के खतरों ने "व्याकुल"
गरीबों की जलती चूल्हों को तुड़वा दी है।
जनता की सुरक्षा सर्वोपरि थी पर,
लगी-लगाई रोजी-रोटी छुड़वा दी है।


    दयानन्द त्रिपाठी
       "व्याकुल"
लक्ष्मीपुर, महराजगंज।

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