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आइये पढ़े "वर्तमान में दरकते रिश्ते" - दयानन्द त्रिपाठी की रचना क्लिक कर पूरी पढ़े आपका प्यार कविता को मिलेगा।

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शीर्षक - वर्तमान में दरकते रिश्ते
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भौतिकवादी   युग  परिवेशों  में
रिश्ते  खण्ड-खण्ड  होते जा रहे,
सुख-दुख बांटने की अनुभूति में
एकल    रिश्ते    होते    जा   रहे
वर्तमान      में     दरकते    रिश्ते,
न्यूक्लियर  से  होते  जा  रहे।

मार्डन  एहसासों  के  जग में
रिश्तों के अभाव होते जा रहे
जिनकी   खातिर   सारी  उम्र
बुजुर्ग  बोझों  से दबते जा रहे
वर्तमान    में    दरकते   रिश्ते,
संवेदन शून्य होते जा रहे।

सपनों  को पाला पोशा  इतना
परिवारों में भाव मिटते जा रहे
कारण   व   निवारण   क्या  है
वर्तमान में रिश्ते दरकते जा रहे।

खूब   संजोया   सपना   अपना
दर्द है ऐसा सब बिखरते जा रहे
खुदगर्जी   और   नफरत   ऐसी
वर्तमान में दरकते रिश्ते जा रहे।

छोटी छोटी बातों पर हुआ अहम 
सम्बंधों के भावों में नहीं रहा दम
कारण   व   निवारण   क्या    दूँ
पानी पर पानी से लिखते जा रहे
कदम कदम पर संघर्षों की गाथा
वर्तमान  में  दरकते रिश्ते जा रहे।

अब रिश्तों की कोई  बात न पूछे
फटी    पुरानी    होती   जा   रही 
व्याकुल हो दर्द साफ कर पढ़ लो
चिड़िया   और   चिड़ा  को  देखो
बैठे  पेड़  बबूर  पर  सोचे  जा रहे
कारण    व    निवारण    क्या   है
वर्तमान  में  दरकते  रिश्ते जा रहे।
       मौलिक रचना:-
   दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
    महराजगंज,  उत्तर प्रदेश।

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