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डॉ0 हरि नाथ मिश्र

नौवाँ-2
क्रमशः.....नौवाँ अध्याय (गीता-सार)

पर जे जगत महातम अहहीं।
भजहिं मोंहि अबिनासी कहहीं।।
      भजहिं निरंतर मम गुन-नामा।
      करि मम ध्यानइ करत प्रनामा।।
करहिं जतन मों पावन हेतू।
ब्रह्म स्वरूपहिं कृपा-निकेतू।।
       कछुक भजहिं एकत्वयि भावा।
       बासुदेव मम रूप सुभावा।।
कछु पृथकत्व भाव मों पूजहिं।
स्वामी-सेवक-भाव न दूजहिं।।
      अपर पूजहीं बहुत प्रकारा।
      निज सुभाव निज गति अनुसारा।।
जगि स्मार्तइ क्रतु स्रोत कर्मा।
स्वधा-अन्न-औषधि कै धर्मा।।
       अहहुँ हमहिं घृत-मंत्र-बनस्पति।
        अगन हमहिं जे हवन बनिस्बति।।
सुनहु पार्थ मैं धाता-पोषक।
माता-पिता-पितामह रोचक।।
      ऋग अरु साम-यजुर मैं बेदा।
      मैं ओंकार सब्द सम्बेदा।।
अहहुँ हमहिं सुनु प्रतिउपकारी।
सभ जन बास-सरन हितकारी।।
      अहहुँ मैं उत्पति-प्रलय-अधारा।
       अबिनासी अरु जगत-सहारा।।
दोहा-मैं अमृत अरु मृत्यु मैं,सत्य-असत्यइ पार्थ।
        सुरुज किरन कै ताप मैं, बरसहुँ जल परमार्थ।।

                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                       9919446372      क्रमशः........

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