विषय -मित्रता के रंग
मिलते नही अब मित्र वो,
जिनमे कृष्ण सुदामा बसते हों,
है नही वो नाभि कहीं जहां सुगंध कस्तूरी हो,
हर ओर पनप रही ईर्ष्या,
मित्रता बस छलावा है,
ऊपर से बस प्रेम बरसता,
अंदर जलती ज्वाला है,
खेल है बस स्वार्थ का,
केवल पाने की आशा है,
मित्रता की मर्यादा भंग हो गई,
दोस्ती को बना दिया दिखावा है,
जिनके हाथों में हाथ दिया है ,
वही खींचते टांग हमारी,
क्या कहें ? कैसे कहें ?
कैसी है अजब ये उनकी यारी।
मित्रता का पहने नकाब,
छुपे हुए हैं दुष्ट सभी,
दिन में जाने कितने कितने बदलते हैं मुखोटे सभी।
कलयुगी इन मायाधारी,
मित्रो के कुचक्र में फंसी हुई,
बस याद उन्हें ही करती हूँ ,
जो थे बचपन मे संग कभी।
नयनों में झूलती है मधुरता,
वाणी की उनकी कोमलता,
वो अबोध बालपन की हृदयता,
कितनी निश्छल थी वो निर्मलता।
बस संग संग चलते थे हम सब,
छल प्रपंच से दूर कहीं,
सुख दुख के हम सब साथी थे,
एक ही आसमाँ के तो तारे थे,
न कोई छदम, न कोई आवरण,
बस एकात्म का किया था वरण।
आज एकांत की इस नीरवता में,
ढूंढती हूँ वही पुराने संग सखा,
कोई लौटा दे हाय वो संग सखा।
हो जाऊं आज फिर से पूरी,
जो मिल जाते वो संग सखा।
जो मिल जाते वो संग सखा।।
वंदना खरे मुक्त
चचाई
*जिला- अनूपपुर म.प्र.*
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