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रंजना कुमारी वैष्णव

प्रकृति की गोद में

शांत चित्त बैठी आज मैं प्रकृति की गोद में ।
आह! क्या नजारा हैं, मनोरम छवि प्रकृति की ।
वो पहाड़ो को चीरता सूरज, 
ये वृक्षों पर छाई अमर बैलों की घटाए, 
पैरों को छूकर कल-कल बहती नद, 
कलरव पक्षियों का आखेट नजारा...
सब कितने व्यस्त और मस्त हैं,
फिर मैं क्यूं एकांत ढूंढ रही हूँ? 
पर कुछ तो सोच रही मन ही मन में...
जब ये विशाल पहाड़ सूरज के उदीयमान को नही रोक पाते ,
ये वृक्षों पर छाई अमरबेल टहनियों को नही जकड़ पाती, 
कल-कल बहती नदियों को कितना ही छिन्न -भिन्न कर दो, 
परन्तु नव राह संचार कर अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाती...
फिर मैं क्यूं मन मार रही?
ये नादान पक्षी बच्चों संग ठिठोली कर कोसो दूर तक है जाते, 
सांझ ढले आशियाना मिलेगा या नहीं कभी ना जान पाते, 
जो उजड़ा आशियाना तो फिर निर्माण मे लग जायेंगे ,
पर हार मान ले जिंदगी मे कभी ना हमें सिखायेंगे... 
तुच्छ लगती चींटी सबको मेहनत करना सीखा देती,
कुछ भी असंभव नही दुनिया मे अच्छे से समझा जाती।
  
रंजना कुमारी वैष्णव

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