गंगा जाता डूब
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पापी पाप उतारने गंगा जाता डूब
भावों में संक्रमण हुआ और अकड़ता खूब।
बुद्धिमान बनता बहुत छली छलावा क्षूद्र
भूल गया सब देखते मरघट से ही रूद्र।
नयन नही करुणा सखा हृदय नही है प्रीत
फिर भी मूरख चाहता इस दुनिया मे जीत।
सम्मुख भूखा रो रहा नहि पिघला पाषाण
तब पछताएगा सखा जब तन निकले प्राण।
मन बदलो गंगा चलो एक मेव है रीत
सुंदर सुंदर शब्द से सजे सुरीला गीत।
पथिक पंथ आनंद मे मधुर मनोहर भाव
निष्कंटक हो फिर चले भव सागर मे नाव।
पार उतरने मे प्रिये रखता क्यों संदेह
भागवान को ही मिले उस दाता का नेह।
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.
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