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सुनीता सुवेंद्र सिंह

ढाई आखर

ढाई आखर से जुड़ गया जिसका नाता है,
उसके रोम-रोम में ही संगीत बस जाता है।

हो कश्ती कितनी भी जीवन की
डांवाडोल पर,
संगीत के सहारे वो तो पार उतर जाता है।

जिसके हृदय में सिर्फ ढाई आखर  करे शोर,
उसके रोम-रोम में ही बस संगीत समाता है।

राग द्वेष के यंत्रों से जिनका मन
हट जाता है,
उसके रोम-रोम में भी बस संगीत  समाता है।

बनकर साधक ढाई आखर का
जो शिव से जुड़ जाता है
सृष्टि के कण कण में उसे प्रेम संगीत नज़र आता है।
आसमां से स्वर बरसते झूमकर गाता समीर
धरा की धड़कन में रम जाता नेह
का नीर
ढाई आखर गूंजते सारी दिशाओं में स स्वर
रह न पाता दूर इससे यत्न न करता असर
वह तो बस प्रेम का दिनकर बन जाता है
मन में निर्मल ज्योति जगाकर ज्योतिर्मय कर जाता है।
सुनीता सुवेंद्र सिंह

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