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मार्कण्डेय त्रिपाठी

आंखें

आंखें सच दर्पण हैं मानो,
सारे भेद बताती हैं ।
कभी हास्य तो कभी रुदन बन,
सब कुछ वे कह जाती हैं ।।

आंखों में ही प्यार झलकता,
शर्म,जुगुप्सा, आंखों में ।
आंखों में अद्भुत ज्वाला है,
सृष्टि बदलती राखों में ।।

आंखों की भाषा को पढ़कर,
काम अनेकों होते हैं ।
आंखों की है कृपा निराली,
प्राणी जगते सोते हैं ।।

आंखों की पीड़ा से सच,
सरकारें भी गिर जाती हैं ।
पड़ा मुसीबत में जीवन तो,
आंखें भी फिर जाती हैं ।।

आंखें द्वय धोखा देतीं तो,
खुल जाते हैं अंतर्चक्षु ।
सूरदास रचते हैं सागर,
होते अगणित संत मुमुक्षु ।।

आंखों के सपनें सच हों तो,
यह जीवन खिल जाता है ।
होती आंखें चार जभी,
तो जग मधुमय बन जाता है ।।

स्वस्थ, चमकती आंखों में सच,
सत्य दिखाई देता है ।
प्रभु आंखों की कृपा हुई तो,
जगत् बधाई देता है ।।

आंख बिना सूना है सब कुछ,
आंखों का उपचार करो ।
नई रोशनी दे आंखों में,
मानव का उपकार करो ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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