अंदर से है सूर
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केवल बाहर से दिखता है अंदर से है सूर।
दाता इनको क्षमा करो ये लोग बड़े मजबूर।
इनकी आदत और कल्पना नाप रहे संसार
अपनी नापी वस्तु के खुद बतलाते आकार।
जब चाहें पकड़े रहें जब चाहे दें छोड़
प्रतिफल स्वयं निकालते संख्याओं को जोड़।
फर्क नही सच झूठ मे गढ़ते स्वयं विधान
मस्तक लेकर घूमते मित्र वृथा अभिमान।
मन भीतर का आदमी कारागृह मे कैद
व्याधि ग्रस्त जो आदमी बन बैठा है बैद।
नयन ज्योति तो है नही अंतस जला न दीप
फिर भी खुद को मानता जैसे कोई महीप।
स्वांग रचाने मे बड़े पारंगत सब लोग
अनुपभ अद्भुद छद्म का करते सरल प्रयोग।
दीन दशाओं पर लगा शनि राहू का फेर
हैं व्याधा के जाल मे तीतर और बटेर।
कौन छुड़ाए बंध से कौन करे आजाद
बहुत कठिन पहचाना भला कौन, जल्लाद।
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.
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