सरस्वती वन्दना
हे मातु भारती I तुम्हें नमन ।
गुञ्जित तुमसे ये धरा गगन ।
बजती वीणा झन झनन
झनन ।
झन झनन झनन,झन झनन झनन
मैं तेरे द्वार खड़ा,अम्बे I
चरणों में शीश पड़ा अम्बे
भूतल पर तू ही एक शरन
बजती है वीणा झनन झनन ।
झन झनन झन झनन ।
माँ तू ही पथ निर्मात्री है ब्रह्माणीहै,विधात्री है I
तू विमलांगी तू श्वेत बरन
बजती है वीणा झनन झनन ।
झन झनन झझन,झन झनन झनन ॥
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भक्तों का क्लेशहरन करती I
विजली जैसी दम दम करती I
जगमग ,जगमग सी ज्योति किरन I
बजती है वीणा झनन झनन ॥
झन झनन झनन ,झन झनन झनन ।
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तू श्वेत वसन धारन करती
तू श्वेत हंस वाहन रखती
रखती है श्वेत कमल आसन I
बजती है वीणा झनन झनन I
झन झनन झनन,झन झनन झनन
सब पाप ताप हर ले जननी I
बाधाओं को दल दे जननी
दे दे सबको सुखमय जीवन ।
बजती हैवीणा,झनन झनन ।
झन झनन झनन,झन झनन झनन I
चहुँ ओर मयी आपा- धापी I
षडयन्त्र रच रहे हैं पापी I
कर सकती तू ही परिवर्तन
बजती है वीणा झनन झनन ।
झन झननझनन,झन झनन झनन ।
डाo विमलेश अवस्थी:
मुझको अंगीकार नही है,
झुकना या रुक जाना ।
संकट में त्योहार मनाना
सीखा हैै I
शूलों को गलहार बनाना
सीखा है I
गीतआग के हमने गाना
सीखा है I
लक्ष्य हमाराहै विघ्नों पर
विजयी घ्वज फहराना I
मुझको अंगीकार नही है
झुकना या रुक जाना I
क्रान्ति कभी क्या नयन
मूँद कर रोती I
नहीं ढालती कभी शोक के मोती I
अंगारों की अपनी गरिमा
होती ।
जलते शोलों मे भी हमने
सीखा हैैमुस्काना I
मुझको अंगीकार नहीं है
झुकना या रुक जाना I
निर्भय होकरके कष्टों को सहते है I
कथाव्यथा की कभी नहीं हम कहते हैं I
भूचालों में भी तो हॅसते रहते हैं I
गोलों के वर्षण पर भी गाते हैं मस्त तराना I
मुझको अंगीकार नहीँहै
झुकना या रुक जाना I
सपने गलते गलजायें परवाह नहीँ I
कभी निकाली हमने मुँह से आह नही I हर पल मन चीता हो,ऐसी चाह नहीं I
हम हैं राही धर्म हमारा
चलते जाना I
मुझको अंगीकार नही है
झुकना या रुक जाना I
बर्बरताको हमने गले लगाया कब I
दानवता का भीषण पथ
अपनाया कब ।
मानवता का हमने मान
नसाया कब I
हमने सदा अँधेरो पर भी
सीखा है जय पाना I
मुझको अंगीकार नहीं हैै,
झुकना या रुक जाना I
डॉ० विमलेश अवस्थी
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