सोलहवाँ-1
*सोलहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
दैवी-असुरी सम्पति जे जन।
उनहिं क अबहिं बताउब लच्छन।।
सुनु हे अर्जुन,कह भगवाना।
चित-मन महँ रखि मोर धियाना।।
योगइ ग्यान ब्यवस्थित जे जन।
रहँ रत भजन सच्चिदानंदघन।।
सुचि हिय इंद्री -दमनय- दाना।
पठन व पाठन बेद-गियाना।।
करहिं तपस्या पालन धर्मा।
सहत कष्ट तन अरु निज कर्मा।।
क्रोध व हिंसा,लोभ बिहीना।
कर्तापन- अभिमानइ हीना।।
चित चंचलता,चेष्टा-भावा।
निंदा-भावा सदा अभावा।।
सदा सत्य,पर प्रिय रह बचना।
अस जन-चरित जाय नहिं बरना।।
धीरज-तेज-छिमा,चित-सुद्धी।
सत्रुन्ह सँग रह मित्रय बुद्धी।।
नहिं अभिमान पुज्यता-भावा।
दैवी सम्पति जनहिं सुभावा।।
बचन कठोर,क्रोध,अग्याना।
असुर सम्पदा जनहिं निसाना।।
मद-घमंड-पाखंडय लच्छन।
असुर सम्पदा जन नहिं सज्जन।।
दैव सम्पदा प्राप्त असोका।
अर्जुन, करउ न तुम्ह कछु सोका।।
दोहा-मुक्ति-प्राप्ति के हेतुहीं,दैव सम्पदा होय।
असुर -सम्पदा -प्राप्त जन,बंधन-मोह न खोय।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः........
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