पंद्रहवाँ-2
क्रमशः...पंद्रहवाँ अध्याय (गीता-सार)
जीवात्मा तजि पूर्ब सरीरा।
मन-इंद्रिय सह प्रबिसै थीरा।।
जाइ पुनः अति नूतन देहा।
बायु-गंध इव बिनु संदेहा।।
सेवन करै पुनः रस-भोगा।
पाँचउ इंद्रि पाइ संजोगा।।
त्वचा-घ्राण-लोचन अरु रसना।
कर्ण समेत बिषय-रस चखना।।
ग्यान रूप लोचन जन ग्यानी।
समुझहिं तत्त्व, न जन अग्यानी।।
सुचि हिय जोगी आत्म प्रयासा।
जानि क तत्त्व रखहिं बिस्वासा।।
अन्तःकरण सुद्धि नहिं जाको।
अस मूरख नहिं जानै वाको।।
सूर्य-चन्द्रमा-अगनी-तेजा।
बिनु मम तेज रहहिं निस्तेजा।।
प्रबिसि अवनि मैं भूतन्ह धारक।
रस स्वरूप ससि अमरित बाहक।।
करहुँ पुष्ट औषधि जे जग रहँ।
सब तरु-पर्ण-पुष्प-फल जे अहँ।।
हमहिं प्राणि-बपु स्थित अगनी।
बैस्वानर बनि अनल भष्मिनी।।
प्राण-अपान युक्त अन चारी।
सतत पचावउँ बल संचारी।।
प्राणिन्ह उरहिं मैं अंतर्यामी।
स्मृति-ग्यान-अपोहन नामी।।
केंद्र अध्ययन जानन जोगू।
कर्त्ता मैं बेदान्तइ भोगू ।।
दोहा-सुनु अर्जुन तुम्ह ई जगत,छड़भंगुर-नसवान।
इक आत्मा इक बपु बसहि,दुइ प्राणिन्ह अस जान।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः......
पंद्रहवाँ-3
क्रमशः....पंद्रहवाँ अध्याय (गीतासार)
जीवात्मा अबिनासी जानउ।
नासवान तन प्राणिन्ह मानउ।।
उत्तम पुरुष अन्य इहँ एका।
प्रबिसि लोक तीनउ ऊ लोका।।
धारै-पोसै ऊ अबिनासी।
परमेस्वर सभ जीव उलासी।।
मैं अतीत जड़-जिव-नसवानहिं।
माया स्थित जिव आत्मानहिं।।
अस्तु,लोक अरु बेदन्ह हमहीं।
जग-प्रसिद्ध पुरुषोत्तम अहहीं।।
ग्यानी पुरुष जानि पुरुषोत्तम।
बासुदेव मों भजहिं बिना भ्रम।।
सोरठा-हे अर्जुन निष्पाप,गोपनीय निज रहसि मैं।
कहेउ सकल जे आप,जानि होंय ग्यानी कृतगि।।
दोहा-जानि प्रभुहिं पुरुषोत्तमहिं,सुजन भजहिं भगवान।
भजन करत हों पार जन,ई भव-सिंधु महान ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
पंद्रहवाँ अध्याय समाप्त।
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