सोलहवाँ-2
क्रमशः....सोलहवाँ अध्याय (गीता-सार)
अहहिं असुर-सुर दूइ सुभावा।
दानव-देव भूतनहिं पावा ।।
प्रबृति-निबृति नहिं जानहिं असुरा।
कथन असत्य,चरित नहिं सुथरा।।
मानहिं जगत आश्रयइ हीना।
बिनु इस्वर जग मिथ्या-छीना।।
स्त्री-पुरुष-मिलन जन भवहीं।
काम-भोग-सुख लेवन अवहीं।।
अस जन मंद बुद्धि अपकारी।
जगत-बिनासक भ्रष्टाचारी।।
दंभ-मान-मद-युक्त,न दाना।
मिथ्यावादी जन अग्याना।।
यावद मृत्युहिं रत रस-भोगा।
बिषयइ भोग-अनंद-कुभोगा।।
रहइ लछ्य बस तिन्हकर एका।
काम-क्रोध-धन-लोभ अनेका।।
धन-संग्रह अरु चेष्टा-आसा।
करहिं इनहिं मा ते बिस्वासा।।
मानहिं स्वयं सुखी-बलवाना।
सिद्धि-प्राप्त ईस -भगवाना।।
बैभव-भोगी,रिपु जन-घालक।
बड़ धनवान,सकल कुल-पालक।।
अपर न कोऊ मोंहि समाना।
करब जग्य अरु देउब दाना।।
चित-मन-भ्रमित अइस अग्यानी।
असुर-सम्पदा-प्राप्त गुमानी।।
दोहा-मोह रूप के जाल महँ,फँसत जाँय अस लोग।
सुनहु पार्थ ते जा गिरहिं,नरकइ-कुंड-कुभोग।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः.......
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