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व्यंजना आनंद मिथ्या

।।*आत्म -- चिंतन*।।
    ****************

    *सात्विक क्रोध*
    ************

समय समय सब शोभता ,
  प्रेम क्रोध सह त्याग ।
हर पल तुझमे देखना ,
   बन जाता यह आग।।

खाक करें पल में यहाँ ,
   शुभ फल भी सब जाय ।
पतन हुआ फिर धर्म का ,
     दंड वही है पाय ।।

 भीष्म पितामह ने यहाँ, 
   नहीं किया था पाप ।
एक पाप से था मिला ,
    शैया वाणों शाप ।।

 क्रोध समय पर हो अगर ,
     होता नही अनिष्ट।
बचता वंश अधर्म से ,
      सारे रहते शिष्ट ।।

  पाया पुण्य जटायु था ,
     एक कर्म से देख ।
क्रोध समय पर वह किया ,
    बदली उसकी रेख ।

मिली गोद श्री राम की ,
    जो उनके भगवान ।
श्रद्धा से सब पूजते ,
      देते सारे मान ।


अतः क्रोध ऐसा करो ,
  पुण्य सदा बन जाय ।
मर्यादा रक्षा बने ,
  दूजे हित हो पाय ।।

वहीं क्रोध है पाप बने ,
   दिए धर्म को चोट ।
अहित हुआ हो जब यहाँ ,
     होती तेरी खोट।। 

आभूषण है जीव का ,
    शांति यहाँ है नाम ।
अविहित पाप खिलाफ, 
   करना तुम बस काम ।।

सात्विक क्रोधी जीव का ,
    करता है उद्धार ।
वैसे नर का ही सदा ,
    प्रभु लेते हैं भार ।।
*********&********

*व्यंजना आनंद "मिथ्या "*

विधा ---- कुण्डली

        *बेटी*
        *****
संजोए गुण मात की , पूरण करती धर्म ।
बेटी में  यह गुण भरा , जान सुता के कर्म ।।
जान सुता के कर्म , जन्म से  पूरा करती ।
सबका रखती ख्वाल , सभी की पीड़ा हरती ।।
कह मिथ्या आनंद  , यही जग खुशियाँ बोए ।
भरकर प्रेम अथाह , ख्वाहिशे मन  संजोए ।।

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व्यंजना आनंद मिथ्या ✍🏻

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