,,,,,,,,,,,,,रूह मेरी तलब,,,,,,,,,,,,
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मैं धरा, देखिये वो गगन चाहता
रूह मेरी तलब, वो बदन चाहता
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जिद पे दोनों अड़े, कैसी हो ज़िन्दगी
मैं हकीकत, मगर वो सपन चाहता
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फूल,काँटे,खुशी,ग़म भरी राह में
मैं तबस्सुम ,मगर वो रुदन चाहता
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है तमन्ना, तलब हर किसी की अलग
कोई सहरा ,तो कोई चमन चाहता
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चाँदनी रात में,जाने क्यूँ मेरा मन
सिर्फ चाहे वही, जो सजन चाहता
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साथ मेरे चले, हमसफर बनके वो
इस ज़माने में जो, बस अमन चाहता
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जी रहा बारूदों की तपिश में मगर
इक दीवाना ज़िगर में जलन चाहता
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शिवशंकर तिवारी।
छत्तीसगढ़।
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