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मार्कण्डेय त्रिपाठी

आहत उपवन है

बाह्य शत्रुओं की तो छोड़ो ,
घर में भी अगणित दुश्मन हैं ।
इनको कैसे हम समझाएं ,
मन कलुषित ,आहत उपवन है ।।

भारत में रहकर भी ये सब ,
दुश्मन सम बातें करते हैं ।
कितना जहर भरा है मन में ,
ईश्वर से भी ना डरते हैं ।।

अपनी बेतुकी बातों से ,
ये मन को आहत कर देते ।
भार रूप ये हैं भारत में ,
फिर भी नाव हमारी खेते ।।

ये सब पार्टी के नेता हैं ,
देश के नेता कम ही दिखते ।
जोड़, तोड़ सरकारें बनतीं ,
लोकतंत्र के मूल्य हैं बिकते ।।

न्याय व्यवस्था की कमजोरी ,
इनको सदा छुड़ा देती है ।
भारत माता आहत होती ,
फिर भी स्नेह जुड़ा लेती है ।।

व्यथित हृदय दिन, रात मौन रख ,
यह सब कुछ सहता रहता है ।
अपने से अब नहीं , आज सच ,
अपनों से ही डर लगता है ।।

जाति, पंथ जनगणना की अब ,
देखो आहट पड़े सुनाई ।
पशु, पक्षी से तुलना होती ,
धन्य कुटिलता इनकी भाई ।।

कृषि प्रधान देश भारत अब ,
कुर्सी प्रधान हमें दिखता है ।
सारे तिकड़म इसी लिए हैं ,
इसी हेतु नेता चिखता है ।।

राजनीति व्यवसाय हो गई ,
त्याग, समर्पण भाव लुप्त है ।
ईमानदार जन गिने चुने हैं ,
जनहितकारी चाव सुप्त है ।।

देश बड़ा होता है सबसे ,
देशभक्ति सर्वोच्च धर्म है ।
उसके प्रति नित आत्म समर्पण ,
पुण्य भाव , नागरिक कर्म है ।।

फिर भी भारत के सपूत ,
दिन, रात सतत् संघर्ष कर रहे ।
इस संक्रांति काल में भी वे ,
भारत का उत्कर्ष कर रहे ।।

विश्व नमन् करता भारत को ,
उसकी बात सुनी जाती है ।
बदल रहा है देश हमारा ,
दुश्मन की फटती छाती है ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी

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