आघात
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निज कर्मों के फेर मे सहा बहुत आघात
भटक रहा अँधियार मे देखा नही प्रभात।
गुणा भाग नहि काम के बढ़ता केवल पीर
बढ़ती जाती मूढ़ता मूरख हुआ अधीर।
छोड़ गया निज धर्म को तनिक नही मन क्षोभ
ज्यों ज्यों आगे जा रहा बढता जाता लोभ।
वृत्ति असुर सी हो रही सोचे बस निज हेत
अंतस मे बासा करे इक कुरूप सा प्रेत।
धर्म कर्म से प्रेत का नाते दारी शून्य
पाप बली बढ़ता गया पड़ा व्याधि मे पुण्य।
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.
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