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डॉ० विमलेश अवस्थी

 बुझा दिया हूँ
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बुझा दिया हूँ या खाली पैमाना लगता हूँ i
अपनी ही देहरी परमैं ,अनजाना लगता हूँi

अन्तर का तम हरने को मैं,था पर्याप्त अकेला i
जहाँ रुका बस वहीं ज़ुड़ गया,अरमानों का मेला i
सब सपने गल गये कि अपने भी हो गये पराये,
जीवन पथ पर जिस दिन से ,आयी है संध्या वेला 

अब तो बन्द पड़ा सा इक तहखाना लगता हूँ i
बुझा दिया हूँ या खाली  पैमाना लगता हूँ i

जिनके लिए कभी मैं प्रेरक जीवन दर्शन था i
जिनके लिये कभी दर्पण,अभिनन्दन ,वन्दन था i
वक्त बदलते बदल गया सब,उनका चिन्तन भी,
जिनके लिये कभी मैं सुरभित चन्दन था i

उनको मैं बूढ़ा सनकी,दीवाना लगता हूँ।
बुझा दिया हूँ,या खाली पैमाना लगता हूँ i

जिनके लिये,झमेले झेले,कोई आह नहीं i
जिनके लिये स्वयं के सुख की,रक्खी चाह नहीं i
केवल अभिलाषा थी कि वे आगे बढ़ जाएँ
आज उन्हीं को मेरे सुख -दुख की परवाह नहीं

उनकी नज़रों में बिल्कुल बेगाना लगता हूँi
बुझा दिया हूँ,या खाली पैमाना लगता हूँi

रचनाकार
डॉ० विमलेश अवस्थी
कवि एवम् वरिष्ठ नागरिक

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