*गीत डॉ० विमलेश* *अवस्थी*
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जो कहता हूँ,सच कहता हूँ।
सच के सिवा न कुछ कहता हूँ i
सम्प्रदायवादी नागों ने मन
विक्षत कर डाला i
शान्त धरित्री पर धधका दी,महानाश की ज्वाला ।
ज्वालाओं की इन लपटों
में,मैं भी दहता हूँ ।
जो कहता हूँ,सच कहता हूँ i
सच के सिवा न कुछ कहता हूँi
वर्गवाद और जातिवाद का,ऐसा खेल हुआ ।
भाई चारा खत्म,लहू का रंग बेमेल हुआ।
सर्पदंश और नागफनी के,
घेरे में रहता हूँ i
जो कहता हूँ,सच कहताहूँ।
सच के सिवा,न कुछ कहता हूँ॥
राजनीति से जनसेवा की
बातें दूर हुई i
बेवश जनता,सबकुछ सहने को मज़बूर हुई i
घृणा और हिंसा की सारी घातें सहता हूँ i
जो कहता हूँ,सच कहता हूँ i
सच के सिवा न कुछ कहता हूँi
नेताओं के सारे भाषण,
मिथ्या होते है i
नेताओं के सब आश्वासन
मिथ्या होते है i
धारा की लहरों के संग में
बेवश बहता हूँi
जो कहता हूँ,सच कहता हूँ,।
सच के सिवा न कुछ कहता हूँ।
जिस दिन जनता का,क्रोधानल जग जाता है i
उस दिन सत्ता का सिंहासन हित जाता है i
जन मन हूँ,परिवर्तन का
पथ गहता हूँi
जो कहता हूँ,सच कहता हूँ i
सच केसिवा न कुछ कहता हूँ'
रचनाकार
डॉ० विमलेश अवस्थी
कवि एवम् वरिष्ठनागरिक
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