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चंद्रप्रकाश गुप्त चंद्र

*शीर्षक - *कृष्ण का सनातन गीता सार*
    (वर्तमान परिप्रेक्ष्य में)

मैं सब में हूं सब मुझमें हैं,मैं ही अनादि अनंत हूं

मैं कृष्ण हूं, प्रकृति सृष्टि का संचालक अनंत हूं

तुम मात्र निमित्त हो,है सारा प्रबंधन मेरा

ज्ञान चक्षु खोल कर देखो रूप विराट मेरा

जन्म लिया तो जी ,जी भर कर

क्यों नित्य मरे, घुट घुट कर

आलस्य प्रमाद सब त्याग कर

सदैव वीरों सा व्यवहार कर

अटूट लक्ष्य का गाॅ॑डीव उठा कर

कर्म श्रम शक्ति की प्रत्यंचा पर

विवेक बुद्धि का शर रख कर

संशय विस्मय का गगन पार कर

जीवन का हर आशय पूरा कर

भूत से किंचित कभी न डर

वर्तमान को रखो संजो कर

भविष्य सदा ही उज्जवल कर

 पल पल जीवन में संघर्ष बड़ा है

पग पग पर व्यवधान खड़ा है

अवसादों का कोहरा चहुॅ॑ ओर पड़ा है

तू भी सारे कंटक करने पार अड़ा है

तू कर्म ही अपना अनूठा अभिनव शस्त्र वना

समझ!फल भी हर कर्म का होता अभीष्ट वना

कोशिश बार बार तुझे करना है

सफलता के पहले कभी नहीं रुकना है

गिरने के डर से यदि चले नहीं

मरने के डर से लड़े नहीं

जीवन का तय किया कोई लक्ष्य नहीं

तो जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं

मैं ही तेरे जीवन की लौकिक अभिलाषा हूॅ॑

इसीलिए करता क्षण क्षण दूर निराशा हूॅ॑

जो चेत गया, जीवन को वो जीत गया

जो जीत गया, मुठ्ठी में सर्वस्व हो गया

चेतन में मैं हूॅ॑, अवचेतन में मैं हूॅ॑

 मैं सब में हूॅ॑ ,सब मुझमें हैं, मैं ही अनादि अनंत हूॅ॑

मैं कृष्ण हूॅ॑, प्रकृति सृष्टि का संचालक अनंत हूॅ॑

   सत्यं वद धर्मम चर, यतो धर्मम तथो जया

    *कृषणं वन्दे जगत गुरु*
               जय भारत

         चंद्रप्रकाश गुप्त "चंद्र"
                (ओज कवि)
          अहमदाबाद, गुजरात

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       सर्वाधिकार सुरक्षित
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