यू. एन. ओ.!
यू.एन.ओ. तेरा गम बँटाने कौन आएगा?
तू अपनी ढपली- राग कब तक बजाएगा।
अब कहाँ बचे सच से टकराने वाले लोग,
झूठ के साये से बता कौन बचाएगा?
छोड़ दे सारी दुनिया यदि अपनी पकड़,
बेचारा अफगानिस्तान तो वो मर जाएगा।
बह रही है नदी देखो रोज वहाँ खून की,
फ़र्जअदाएगी की झूठी बस कसम खाएगा।
खून सस्ता हुआ और पानी महंगा हुआ,
गुत्थियां जहां की आखिर कब सुलझाएगा?
भड़काई आग किसने, ये सबको है पता,
ऐसे जख्मों को कब तलक तू सहलाएगा?
उठाते -उठाते लाश लोग थक जा रहे हैं,
कारगर कदम न उठाया तो तू थक जाएगा।
कितने दिन तक मातम मनाएगी ये दुनिया,
मुझको लगता है कि मातम भी थक जाएगा।
कौन तलवे रोज चाटे उन वहशियों की,
एक दिन वहशी ही वहशी को खा जाएगा।
बचाया न यू. एन.ओ.अगर तू खुद जहां को,
तू अपनी ही परछाई से डर जाएगा।
अपने दिल के आईने में झाँक यू. एन. ओ.
रोने के लिए खुद तू भी न आँसू पाएगा।
शांति- सेना आखिर तुम्हारी कर क्या रही?
तेरे शौर्य का वो परचम कब लहराएगा?
रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार), मुंबई
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें