*।।रचना शीर्षक।।*
*।।पत्थर के होते जा रहे संवेदना शून्य बड़े शहर।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
बड़ी अजीब सी बड़े शहरों
की रोशनी होती है।
दिन खूब हँसता पर रात
बहुत रोती है।।
उजालों में भी चेहरे यहाँ
पहचाने नहीं जाते।
सच सिसकता और झुठलाई
नींद चैन की सोती है।।
2
आदमी भटकता रहता है यहाँ
कंक्रीट के जंगलों में।
संवेदना सुप्त रहती है यहाँ
सबकी धड़कनों में।।
फायदे नुकसान के गणित में
गुम रहते हैं लोग यहाँ।
हर बात उलझती रहती यहाँ
राजनीतिक दंगलों में।।
3
संबंध निभाने का समय लोगों
के पास होता नहीं है।
पाने को रहता आतुर हमेशा
कुछ खोता नहीं है।।
एकल परिवार का चलन बढ़
रहा बड़े शहरों में।
दूर रहते बेटा,बहु,पोती,पोता,
कोई पास होता नहीं हैं।।
4
अजब गजब सा सन्नाटा पसरा
रहता है यहाँ घरों में।
भगदड़ मची रहती यहाँ बाहर
हर आदमी के परों में।।
खामोशी में छिपा रहता कुछ,
अज्ञात कोलाहल सा।
मीलों की दूरी रहती हर पास,
की ही दीवार दरों में।।
एस के कपूर श्री हंस
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