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मार्कण्डेय त्रिपाठी

जाग बटोही जाग

प्रभू बुलाते हैं भक्तों को ,
भक्त न अपने से जाते ।
बड़ा स्नेहमय नाता है यह ,
समझ कभी ना वे पाते ।।

रहती सब पर नजर प्रभू की ,
कुछ मंदिर तक जा मुड़ते ।
प्रभु की लीला है अति न्यारी ,
कुछ जन दूर पड़े जुड़ते ।।

देख रहा ऊपर वाला सब ,
इतना मन में है विश्वास ।
उससे कुछ भी छिपा नहीं है ,
वह है दीन जनों की आस ।।

उसे दिखावा नापसंद है ,
वह है भक्त हृदय का भाव ।
जो जग को सब कुछ देता है ,
उसे भला किस वस्तु की चाव ।।

किसी रूप में आ सकता वह ,
हरदम रहना मित्र सचेत ।
सबसे प्रेम भाव से मिलना ,
जग सुख है मुट्ठी की रेत ।।

कैसे पहचानोगे प्रभु को ,
पदवी रूप नहीं कोई साक्ष्य ।
कागज़ के प्रमाण सब फीके ,
बस चेहरे पर दैवी हास्य ।।

भक्त हृदय ही जान सका है ,
भावपूर्ण प्रभु की मुस्कान ।
आत्म समर्पण भाव है जिसमें ,
करता सतत् ईश का गान ।।

नवधा भक्ति को स्वीकार कर ,
भक्त करे निज जीवन धन्य ।
मन, कर्म, वचन एक होते हैं ,
जगता जनम, जनम का पून्य ।।

यह दर्शन का गूढ़ विषय है ,
इसमें ज्ञान, भक्ति अनुराग ।
वाणी शक्ति विफल हो जाती ,
जाग बटोही , अब तो जाग ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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