गीत(16/14)
साधन में साधक रत रहता,
दुष्ट दुष्टता करता है।
भौतिक सुख का ग्राहक मन तो,
नहीं दुष्टता तजता है।।
भरा त्याग से जो है मानव,
श्रेष्ठ वही मानव जग में।
छिपी रहे सुंदरता सारी,
केवल अंगूठी-नग में।
त्यागी पुरुष संत सम होता,
स्नेह सभी सँग रखता है।।
नहीं दुष्टता तजता है।।
पाप-कर्म से भय हो मन में,
भय हो सदा बुराई से।
जीवों के प्रति रखो प्रेम भी,
सेवा-भाव, भलाई से।
पुरुष वही जग पूजनीय है,
जो उदार मन रहता है।।
नहीं दुष्टता तजता है।।
मानवता का धर्म निभाना,
सबके वश की बात नहीं।
दें भूखे को अपना भोजन,
साधारण सौगात नहीं।
जिस पर रहती कृपा नाथ की,
उसको अवसर मिलता है।।
नहीं दुष्टता तजता है।।
लेखक-साधक-चिंतक मिलकर,
सबने विश्व सवाँरा है।
जब-जब ह्रास हुआ मूल्यों का,
कलमों ने ललकारा है।
नई सोच को कलमकार ही,
जन-मानस में भरता है।।
भौतिक सुख का ग्राहक मन तो,
नहीं दुष्टता तजता है।।
©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें