*प्रेमावली (दोहे)*
अति मोहक संवाद का, करना सदा प्रचार।
मन में सीताराम का, नियमित हो विस्तार
जिससे प्रीति लगे वही, रहे प्रेम के संग।
सारी दुनिया देख यह, हो जाये अति दंग।।
जिह्वा से टपके सतत, सरस प्रीति रस धार।
हरदम वह करती रहे, दिव्य -प्रीति-इजहार।।
प्रीति मिले सुंदर सुखद,गहराई में जाय।
सघन प्रीति के हृदय में, बैठ समुद्र नहाय।
सदा मोहिनी मंत्र ही, करे दिलों पर वार।
हल्ला बोले सहज ही, मारे मृदु बौछार।।
प्रेम-मोहब्बत-स्नेह का, मिले दिव्य वरदान।
आशाओं के दीप से, चले हृदय अभियान।।
हाय! सदा साथी बनो,हर लो दुख-अंबार।
प्रेम-मित्रता से करो, जीवन-गाड़ी पार।।
अक्षुण्ण धन मधु प्यार है, नहीं चुकेगा मीत।
इसको जो भी बाँटता, वह खुद में संगीत।।
बन दीवाना प्रेमदा, झूम-झूम कर नाच।
दिल को हीरा कीजिये, मत बनने दो काँच।।
मन पागल हो घूमता, जब पाने को प्यार।
खुल जाती तकदीर है,मिल जाता है द्वार।।
द्वार खड़ा हो माँगता, प्रेमी हृदय प्रदेश।
कृष्ण बना यह घूमता,सदा राधिका- देश।।
राधा के संसार से,कान्हा को है प्यार।
सिर्फ राधिका चाहिए,और नहीं स्वीकार।।
प्रेम करो अनुराग भर, चल प्रेमी के संग।
यह बंधन अति मधुर है, अति मादक प्रिय रंग।।
भूल न जाना राह को, भटक न जाना मित्र।
तुम्हीं एक इस जगत में, मलयागिरि का इत्र।।
इत्र बने महको सदा, वारिद बन दो नीर।
प्रीति पवन बनकर बहो, हरो सकल भव पीर।।
नेति नेति है प्रीति शिव, हो जग का कल्याण।
सदा प्रीति में बसत है, सब जीवों का प्राण।।
अगर प्रीति का साथ है, पूरी होगी आस।
सदा प्रीति पर हृदयतल, से पूरा विश्वास।।
प्रीति स्वयं विश्वास बन, देती ढाढ़स रोज।
सहज प्रीति की आस से,निकले दिव्य सरोज।।
प्रीति न भूले धर्म को, प्रीति धर्म अनमोल।
प्रीति निभाये प्रीति को, बने स्वयं मधु घोल।।
सदा प्रीति रसपान से, मानव बनत सुजान।
प्रीति रसायन तत्व में, छिपा अलौकिक ज्ञान।।
प्याला लेकर प्रीति का, जो घूमत त्रय-लोक।
वह रचता है रात-दिन, अनुपम मादक श्लोक।।
शोकहरण है प्रीति रस,यह है वैद्य महान।
प्रीति मदिर का पान कर,बनत मनुज विद्वान।।
प्रीति ग्रन्थि अद्भुत विरल, यह व्यक्तित्व अबोल।
कह देती हर बात को, संकेतों से बोल।।
सांकेतिक भाषा सरल, जानत इसे सुजान।
संकेतों का यह सहज, अत्युत्तम अभियान।।
संकेतों के अर्थ को, पढ़ लेते वे लोग।
जो ज्ञानी वे जानते, सदा प्रीति का योग।।
अवसर माँगो प्रीति से,बतलायेगी राह।
भर देगी भरपूर वह, मन में अति उत्साह।।
अति उत्साह उमंग से, सींच प्रीति का खेत।
बिना प्रीति के जगत में,सिर्फ भूत अरु प्रेत।।
प्रीति सदा मंगलमुखी, सुमुखि सभ्य पहचान।
प्रीति दिलाती विश्व को,परम रम्य मुस्कान।।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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