भरम
वह कौन रतन अनमोल मिला
जिसको समझा था सोना
पर जिसको समझा था आंसू
वह मोती निकला
यह कैसा भरम है मेरी
कुछ देर कहीं पर बैठकर
सोच सकूं सच्चाई।
जीवन की आपाधापी में
कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं
मैं जहां पर खड़ा था कल
उस थल पर आज नही हूं
चाहे नभ ओलें बरसाएं
या मां धरती उगले सोले
मैं इतना क्यों बदल गया
इस बात को मुझसे पूछा जाता है
समय की चलती अनवरत चक्की में
क्या बतलाऊं मैं
यह कैसा भरम है मेरी
कुछ देर कहीं पर बैठकर
सोच सकूं सच्चाई।
जिस दिन जागी मेरी चेतना
मैं खड़ा था दुनिया के मेलें में
आ गया कहां,क्या करूं यहां
कुछ देर रहा, हक्का बक्का भौचक्का सा
और भीतर भी भावों का
उपापोह मचा रहा
वह कौन रतन अनमोल मिला
जिसको समझा था सोना
पर जिसको समझा था आंसू
वह मोती निकला
यह कैसा भरम है मेरी
कुछ देर कहीं पर बैठकर
सोच सकूं सच्चाई।
नूतन लाल साहू
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