स्वस्थ सोच
स्वस्थ सोच यदि तुम चाहो तो ,
सद्ग्रंथों का पाठ करो ।
सब भ्रमजाल बिखर जाएगा ,
बस प्रभु का तुम जाप करो ।।
गलत पुस्तकों के अध्ययन से ,
मन विकृत हो जाता है ।
मन ही है सुख, दुख का कारण,
चैन कहां मिल पाता है ।।
समय व्यर्थ होता है इससे ,
चिंतन कलुषित हो जाता ।
सोच सिमटकर रह जाती है ,
जग सुख ही मन को भाता ।।
आर्ष ग्रन्थ सन्मार्ग दिखाते,
सोच सात्विक हो जाती ।
वेद, शास्त्र पढ़ने से सचमुच ,
नयी ज्योति उर में आती ।।
कितना पढ़ते हो ,मत सोचो ,
क्या पढ़ते हो, यह जानो ।
कितना खाते हो,मत देखो ,
क्या खाते हो, पहचानो ।।
मनोरंजन के नाम पर देखो ,
क्या, क्या जन पढ़ते हैं आज ।
दूषित छबि मन में जगती है ,
माथ पीटता स्वस्थ समाज ।।
चिंतन,मनन अगर दूषित हो ,
भला कार्य कैसे हो शुद्ध ।
आज विपथगामी चिंतन से ,
चिन्ता में हैं स्वस्थ, प्रबुद्ध ।।
मोबाइल के दुरुपयोग से ,
गलत उभरती है तस्वीर ।
पता नहीं क्या, क्या पढ़ते जन,
क्या, क्या देख रहे उर चीर ।।
बाल, युवा के मनस् पटल पर ,
स्पष्ट दिख रहा कलुष प्रभाव ।
शिक्षा है, संस्कार नहीं है ,
बदल रहा निर्दोष स्वभाव ।।
भौतिकवाद चढ़ा सिर ऊपर ,
कौन सुने मूल्यों की बात ।
सात्विक चिंतन,मनन सुप्त है ,
उर में चले घात, प्रतिघात ।।
गानों व संवादों में भी ,
गायब है शुचि जीवन दृष्टि ।
कला काल सापेक्ष हो गई ,
कहां गई मन भावन वृष्टि ।।
सब कुछ का बाजार हो गया ,
सब बिकने को हैं बेताब ।
सब अवसर की हैं तलाश में ,
मिटी आज मूल्यों की आब ।।
जैसा चाहो,लिखवा लो तुम ,
मिटी आज खुद की पहचान ।
पैसा ही सर्वस्व हो गया ,
बसे सभी के इसमें प्राण ।।
पता नहीं क्या होगा प्रभुवर ,
रखना तुम संतों की लाज ।
भटक गई है सृष्टि तुम्हारी ,
तुम क्या सोच रहे हो आज ।।
धर्म पिपासु आत्माओं की ,
सुन लो प्रभुवर करुण पुकार ।
एक बार फिर आ जाओ तुम ,
कर दो तुम समाज उद्धार ।।
मार्कण्डेय त्रिपाठी ।
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