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मार्कण्डेय त्रिपाठी

आज की राजनीति

जो चाहो लिखवा लो मुझसे ,
राजनीति पर नहीं लिखूंगा ।
साम, दाम, दण्ड, भेद है इसमें ,
मैं बेकार , अयोग्य दिखूंगा ।।

अवसरवादी सोच है इसकी ,
सत्ता इसकी भूख ,प्यास है ।
तिकड़म, मायाजाल बहुत है ,
नेताओं की हरी घास है ।।

हालत देख,सिहर जाता मन ,
सब अपने पर कोई न अपना ।
हास्य, रुदन में भी कृत्रिमता ,
हर क्षण जगता, टुटता सपना ।।

कब तक बची रहेगी कुर्सी ,
इसका कुछ भी नहीं भरोसा ।
टांग खिंचाई जमकर करते ,
जिनको हमने पाला ,पोसा ।।

सच में यह काजल की कोठरी ,
इस हमाम में सब नंगे हैं ।
भीतर से है कठिन बिमारी ,
बाहर दिखें भले चंगे हैं ।।

इसमें शिक्षा नहीं जरूरी ,
कोई भी नेता बन जाता ।
वक्ता चाहे जो बकता हो ,
फिर भी वही चूनकर आता ।।

बहुतों को तो राष्ट्र गान और ,
राष्ट्र गीत भी नहीं पता है ।
राज्य, राजधानी तो छोड़ो ,
बोलो,किसकी यहां खता है ।।

स्वाभिमान गिर जाता इसमें ,
चमचागिरी आज हावी है ।
पहले का अब गया जमाना ,
आज कुटिलता प्रभावी है ।।

औरों के लिखे भाषण को ,
नेता बहुत बार पढ़ता है ।
बाहर, भीतर भेद बहुत है ,
कुटिल सीढ़ियां तब चढ़ता है ।।

लोकतंत्र है देश हमारा ,
हम सब भारत के वासी हैं ।
राजनीति से उदासीन हों ,
यह तो सच में उपहासी है ।।

पानी में गर रहना है तो ,
मगरमच्छ से बैर न करना ।
घड़ियाली आंसू बहते हैं ,
सोच,समझ इसमें पग धरना ।।

हाथ मिलाते रहना इनसे ,
दुआ,सलाम दूर से करना ।
मुस्काकर फोटो खिंचवाना ,
पर मन ही मन इनसे डरना ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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