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मार्कण्डेय त्रिपाठी

गिर गया पत्ता

पेड़ से गिर गया पत्ता ,
वह दुखी,तरु भी दुखी है ।
कट गया जो मूल से ,
सोचो कहां, कैसे सुखी है ।।

यादें उन सुखमय क्षणों की ,
उसे जीवन भर सतातीं ।
आहें भरते रहते दोनों ,
भले दुनियां मुस्कराती ।।

उखड़ता जो मूल से ,
वह तरु कहां फिर खिलखिलाता ।
देख लो क्या हाल उसकी ,
उसका मालिक बस विधाता ।।

तुम भले पुर में रहो ,
पर गांव को मत भूल जाना ।
घोंसला सूना पड़ा है ,
रो रहा है आशियाना ।।

जब कभी अवसर मिले ,
एकांत में निज मन टटोलो ।
आर्त्त स्वर का श्रवण कर लो,
अश्रु से निज पीर धो लो ।।

अपने लोगों से विलग रह ,
जीना क्या सचमुच है जीना ।
दर्द तो होता ही होगा ,
पोंछ लेना तुम पसीना ।।

विहग सम तुम भी उड़ो ,
पर लौटकर निज नीड़ आना ।
शांति, सुख पाओगे निश्चित ,
चल न सकता है बहाना ।।

तुम कहीं पर भी रहो ,
निज गांव से तुम जुड़े रहना ।
मन सदा हर्षित रहेगा ,
भूलना मत गांव गहना ।।

गांव की हालत बुरी ,
तो तुम भी इसके उत्तरदाई ।
संतुलन रखते नहीं ,
किस काम की ऐसी कमाई ।।

इस नयी रचना समय ,
यदि सच कहूं, मैं भी दुखी हूं ।
गांव यदि दुखमय है तो ,
कैसे कहूं कि मैं सुखी हूं ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी

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