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छत्र छाजेड़ फक्कड़

 अजब सितम है मौसम का
कभी धूप कभी छांव ढूँढता हूँ 
जीवन बीता भागमभाग में 
मगर अब ठहराव ढूँढता हूँ 

फैला जंगल कंकरीटों का
गाँव गाँव शहर शहर
घनघोर बियाबन में मैं 
शकुन भरा घर ढूँढता हूँ



 सूख गई अंतर मन की धारायें
क्यूँ प्रीत का रिसाव ढूँढता हूँ 
भौतिक चकाचौंध में खोया मन
फिर भी आत्म लगाव ढूँढता हूँ 

बुझी अनल,राख दावानल
मगर रिश्तों में आँच ढूँढता हूँ 
बाज़ार झूठ का सज़ा चहुँओर 
क्यूँ मानव मन में साँच ढूँढता हूँ 

चेहरे काले रंगें एक रंग में 
जाने क्यूँ मैं काँच ढूँढता हूँ 
रक्त रीत गया गृहस्थी के भाव
मगर मैं रोमांच ढूँढता हूँ 

न ज्वार चढ़ा सागर लहरों में 
क्यूँ मावस को चाँद ढूँढता हूँ 
कब चमकी चपला,कब छायी घटा
घिस घिस क़लम हुई भोथरी
मगर मैं अब भी धार ढूँढता हूँ 

छत्र छाजेड़ “फक्कड़”

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