पग पग लगते शूल सम
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पग पग लगते शूल सम बहे रक्त हर पाँव
अवचेतन मे है पड़ा मै जनमा जिस गाँव।
प्रेम प्रीत जल राख मय अंतस कुटिल कठोर
टूट टूट बिखरा पड़ा बंधन का वह डोर।
उस बंधन के भाव से छूट गये जब लोग
जाने अनजाने फँसे पतन पतित संयोग।
जब भटका निज कर्म से कहाँ घटे संताप
विस्थापित सद्कर्म हुआ लपट उठाता पाप।
रोके कौन बहाव को रक्त बहे जस नीर
पर दुख कातर कौन है जाने जिसकी पीर।
राह साफ सुथरे दिखे पर मन अती मलीन
देना छूटा हाथ से अंतर मन अति दीन।
कुत्सित सोचों ने किया सद्वविचार का दाह
मुख मुसकान विलीन है केवल शेष कराह।
डोर सहेज रखा नही किससे बाँधे बोल
मूरखता से खो दिया वस्तु बड़ा अनमोल।
शेष शूल अब हैं बचे करने को बेचैन
कौन पोछता नीर को नित्य बहाते नैन।
विजय कल्याणी तिवारी, बिलासपुर छ.ग.
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