धारा का प्रवाह
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टूट रहा प्रवाह धारा का
मन अब धीर धरे तो कैसे
जिन नयनों से अश्रु बह रहे
उनके पीर हरे तो कैसे ।
कभी नही इतना बेबस
देखा मैने इंसानो को
दोनों हाथ खोल कर लूटा
देखा सब बेइमानों को
तुम्ही बताओ करूंणा कर
मुख आषीश झरे तो कैसे
जिन नयनों से अश्रु बह रहे
उनके पीर हरे तो कैसे।
तुम पर गहन आस्था मेरी
प्रतिफल शून्य रहा लेकिन
तुम सम्मुख तो क्या चिंता
नियमित नयन बहा लेकिन
दाह देख स्वजनों का हरिहर
हिय संतोष भरे तो कैसे
जिन नयनों से अश्रू बह रहे
उनके पीर हरे तो कैसे ।
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.
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