आशिक़ी!
छाकर बादल वो बरसने लगे,
पेड़ों की डालों पे झूले पड़े।
धरती ने ओढ़ी धानी चुनर,
फिजाओं के पांव थिरकने लगे।
उठने लगी हूक कोयल के दिल से,
दर्द के दायरे तब बढ़ने लगे।
बढ़ी आशिक़ी नदियों की देखो,
बेताबी के रोग पलने लगे।
सागर की तलब और ही बढ़ी,
मयकदे में निशदिन गुजरने लगे।
कुदरत की आँखों में छाई मस्ती,
पपीहे भी पिउ - पिउ रटने लगे।
अंग -अंग कलियों के सजे ऐसे,
नजरों से खंजर भी चलने लगे।
जवानी पे बस कब किसका चला,
भौरें भी दवा उन्हें देने लगे।
मौसम ने ली तब ऐसी करवट,
मानों काँटों से फूल खिलने लगे।
मोहब्बत बढ़ी इस कदर जहां में,
लोग बेखौफ़ जब-तब मिलने लगे।
रामकेश एम.यादव
(कवि,साहित्यकार),
मुंबई
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