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सीमा मिश्रा,

कर दो मेरा उद्धार

मोक्षदायिनी मोक्ष मांगती, करती है चीत्कार,
तात व्यथित मैं वसुधा पर हूं, कर दो अब उद्धार।

मानव के संस्कृति शिखर की,मैं ही हूं पहचान,
मेरे निर्मल जल से धुलते,पाप के जटिल विधान,
किन्तु चेतना शून्य मनुज ने, मेरा हर डाला श्रृंगार,
तात व्यथित मैं वसुधा पर हूं, कर दो मेरा उद्धार।

ब्रह्म की मानस पुत्री मैं , उतर धरा पर आई,
वेग संभाला शिव शम्भू ने,पुरखों को मुक्ति दिलाई।
मनु संस्कृति रक्षित मुझसे,पर दिया मुझे धिक्कार,
तात व्यथित मैं वसुधा पर हूं, कर दो मेरा उद्धार।

मुक्त शवों को करते करते, सूख गई मेरी धारा,
स्वच्छ सभ्यता को करने में, सूख गया है किनारा,
विष्णुपदी हूँ अमृत जल से,कल कल करता संसार,
तात व्यथित मैं वसुधा पर हूं, कर दो मेरा उद्धार।

पुलकित तन और हर्षित मन से, राहें थी गाती,
जीवन की रेखा हूँ मैं ,पर रोज सिमटती जाती,
परि आवरण मिटाता जाता, मेरे हिय का प्यार,
तात व्यथित मैं वसुधा पर हूं, कर दो मेरा उद्धार।

रचना -
सीमा मिश्रा, बिन्दकी, फतेहपुर (उ० प्र०)
स्वरचित व सर्वाधिकार सुरक्षित

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