नारी मन की पीड़ा
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छत्र छाजेड़ “फक्कड़”
दर्द कब रिसे जुबां पर
छुप छुप ही सब सहना है
सह सह कर ही जीना है
सहते सहते ही मरना है......
पुरूष प्रधान समाज ने
निश्चित कर दी नियति
नारी की..
जीती है
मात्र
दर्द सहने को
बचपन में उपेक्षा
जवानी में शोषण
और बुढ़ापे में
मानसिक उत्पीड़न ......
मगर
निर्मल बहती जलधार
बहती है जो
समेटे
सब के अहसास
रखती है बांध कर
सबको
अपने बंकिम बांकुरे तटबंधों में....
पर
मदांध पुरूष
कब सोचता है
कैसी ये विडंबना
क्या नारी ही है सब सहने को...
पुरूष को छाया देता
नारी का आँचल
उस के आँसू पौंछता
नारी का आँचल
और
पुरूष भूल जाता है
करूणामयी शरण स्थली को.....
जीवन के पग पग पर
नारी
बनती है सहारा
कभी माँ बन कर
कभी बहन बन कर
कभी पत्नी बन कर
कभी बेटी बन कर.....
कैसी ये नियति है
नारी की
सब सहती है
सहते सहते मरती है
पर दर्द कब रिसा जुबां पर
पी कर पीड़ा...
मुस्कुरायी सदा.....
फक्कड़ का नमन
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