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स्नेहलता पाण्डेय स्नेह

गीतिका छन्द

आज है सौभाग्य का व्रत, सज रही हैं गोरियाँ।
 मुस्कराती   हैं  हृदय  में, नेह  की ले डोरियाँ।
हार    साजे  है  गले  में, चमक  जाएं मोतियां।
कान के झुमके सुहाने, फैलती है ज्योतियाँ।

सोलहो श्रृंगार  कर  के, खनक कंगन बाजती।
हाथ में पिय नाम लिख कर, मधुर मन वो लाजती।
रूप को दर्पण निरख कर, खुश हुई जातीं घनी।
समझतीं है आज खुद को, जगत की सबसे धनी।

कर रही श्रृंगार नख शिख, रह न जाये कुछ कमी।
आतुरा  सी  मार्ग  देखें,  द्वार   पर  आँखे थमीं।
बादलों  की ओट में जा, चाँद छिप  जाये कहीं।
सुंदरी  के  अधर  टेसू, शुष्क  पड़   जाए वहीं।

थाल पूजा  सज गई है, पात्र जल भी  ले लिया।
आयु लंबी  पति जियें ये,प्रार्थना  प्रभु  से किया।
पति  खड़े हैं सामने ही, जल पिलाते हाथ से।
देखते अति स्नेह भर कर, नयन हर्षित साथ से।

ज्यूँ रहे चंदा गगन में, लालिमा ज्यूँ  रवि  रहे।
त्यों रहे मुझ संग साजन, प्रेम की ये छवि रहे।
नेह  की  ये   रीति  प्यारी, राग  का  त्योहार ये।
प्यास   भी   लगती  नहीं, चौथ का  उपहार ये।

स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह'

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