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नूतन लाल साहू

मैं को बिसर जाओ

मानव जीवन है बहती धार नदी की
जिसका कोई छोर नही है
अकेला खड़ा है,कठिन धरा पर
मैं को बिसर जाओ।
जीवन है, इक आग का दरिया
जिसको कोई लाँध न पाया
मन है चंचलता के परवस में
मैं को बिसर जाओ।
न जाने क्या ख्वाब संजोए बैठे हो
मन ही मन मुस्कुरा रहे हो
मंजिल की तो कोई कोर नही है
मैं को बिसर जाओ।
मुश्किलों से छुटकारा,कभी नही मिलती
उलट पलट वो दौड़े आती है
चैन की नींद,किसने सोया है
मैं को बिसर जाओ।
महाशक्ति की यादों को
क्यों भुल गया,सांसारिक सुख में
रामरतन धन,तभी मिलेगा
मैं को बिसर जाओ।
जीवन तो,यौवन की देहरी पर है
भाव तरंगे,घुमड़ रही है
यदि आतुर हो, भव पार जाने को
मैं को बिसर जाओ।
जीवन का लक्ष्य,बहुत कठिन है
कुछ पा करके कुछ खोना है
कुछ खोकर के कुछ पाना है
अगर जीवन में,शांति की चाह तो
मैं को बिसर जाओ।

नूतन लाल साहू

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