*शीत की भोर*
भोर भी थरथराने लगी
धुंध की चादर लपेटे
धीरे-धीरे कर-पग धरती
फलक पर आने लगी
सिंदुर में घोल श्वेत-
सलेटी-सा रंग क्षितिज
करने लगा है मुस्कुरा कर दिवस का स्वागत
उतरने लगी धूप भी
लरजती सिहरती हुई
फूल पात भी खिलने
लगे ओस में भीगे हुए
हवाएं शीत का शालू लिए
अल्हड़ नायिका-सी
घूमती रहती हैं सुबह से
शाम तलक इधर- उधर
देख के उसकी आवारगी
डरने लगे हैं लोग
पहन कर निकलने लगे हैं
पैर में मोजे से ले सर पर टोप।
डा. नीलम
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