,,,,,,,,,,तिरंगा जो सम्हाले हैं ,,,,,,,,,,,,,,
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कहीं बंदिश निगाहों पे, कहीं ओठों पे ताले हैं
अँधेरों की हुकूमत है, तभी सहमें उजाले हैं
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अनाजों से भरे गोदाम चूहे खा रहे लेकिन
गरीबों के मुकद्दर में, नहीं मिलते निवाले हैं
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जहाँ जाकर बढ़े, इंसान से इंसान की दूरी
ज़मानें में बहुत बेकार ,वो मस्जिद शिवाले हैं
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ख़फा लब से तबस्सुम फिर खुशी इज़हार हो कैसे
ज़हर हिस्से में आए, जब कभी सागर खँगाले हैं
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मुबारक हो तुम्हें मंज़िल, मुझे राहों पे रहने दे
न चल पाऊँगा तेरे साथ, इन पाँवों में छाले हैं
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नहीं है दाग कोई भी, हमारे मन के दर्पण में
नज़र में दोष होने से ,उन्हें लगते ये काले हैं
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उठेगी आग की लपटें, जलेगी झूठ की लंका
तपिश महसूस होगी इस तरफ सच की मशालें हैं
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सियासत की ये बैसाखी, हिफाज़त कर न पायेगी
दुआ उनके लिए माँगो, तिरंगा जो सम्हाले हैं
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शिवशंकर तिवारी ।
छत्तीसगढ़ ।
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