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विजय कल्याणी तिवारी

/ आना - जाना /
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आना जाना सहज रीत है
फिर भी यह मन दुखता है
अश्रु तरलता बढ़ जाती है
बिना रूके वह बहता है ।

नियति नटी बन नित्य नचाता
और विवष हम नाच रहे
दीन हीन अपनी हांडी को
नियमित देते आंच रहे
प्रात पुंज सुख छीन रहा है
स्वर्णिम आभा डहता है
अश्रु तरलता बढ़ जाती है
बिना रूके वह बहता है ।

प्रश्नों का घनघोर समर है
उत्तर अंतरिक्ष मे भटके
हम जैसे अस्तित्व हीन ही
बन त्रिशंकु नभ मंडल अटके
सृष्टि को आभा मय करने
उनका अंतस जलता है
अश्रु तरलता बढ़ जाती है
बिना रूके वह बहता है।

विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.

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