शीर्षक - पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं.......
राम ही श्रीराम हैं, पर मन्थरा भी कम नहीं।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
जब-जब संकल्प सृजन का होगा,
श्रीराम धरा पर आयेंगे।
तब - तब कोई मन्थरा ही,
नित नई दिशा दिखलायेंगे।।
जब सर्वस्व समर्पण के भाव सदा,
तब निज मानव कल्याण सधा।
प्रेम सहित पथ शूल बिछा,
है राम रूप निज धर्म बंधा।।
जननी तो बस जननी है,
वह सुत स्वरूप ही देख सकी।
मन्थरा के उर नयनों ने ही,
विष्णु तेज को देख सकी।।
पल एक नहीं जाया उसने, झट निर्णय लेने में थी कम नहीं।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
राम स्वयं श्रीराम नहीं हो सकते,
जब तक वह निज राजदरबार रहेंगे।
दुष्टों से धरा कांपती रह जायेगी,
यदि राम युवराज बनेंगे।।
निर्ममता, दुष्ट निडर होकर ही,
धरा पर पांव पसारती जायेगी।
होंगें ऋषि-मुनि सब त्रस्त जहां में,
जग से सज्जनता ही मिट जायेगी।।
अविरल नीर बहाते सब जन,
सदा मोक्ष से रहेंगे तिरोभाव।
यज्ञ, दान, सब मंत्र जाप पर,
नहीं होगा कोई आविर्भाव।।
जग परिष्कार करने की ख़ातिर, छल प्रपंच थे कम नहीं।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
ऐसा कुछ प्रपंच करना होगा,
राम राज्य से राम को विचरना होगा।
निष्ठूर विधाता तूं देख इधर,
क्रूर नियति का खेल कोई रचना होगा।।
तर जायेगी धरा की यह नगरी,
जहां श्रीराम लिये अवतार।
जब कानन-कानन विचरण कर,
निशाचरों का करेंगे संहार।।
यदि सोच हमारा फलीभूत हुआ,
अमर सदा होगी अयोध्या नगरी।
चहुंओर गुणगान श्रीराम के होंगें,
जयघोष छंटेगी दु:ख की बदरी।।
जग उद्धार की वेदी पर, छल करने में थी कम नहीं।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
मन में अम्बर भर हर्ष लिये,
अंश्रू लिये चाल कुटिल चल आयी।
श्रीराम के शरणागत हो मन्थरा,
पथ प्रशस्त कर आयी।।
जब राम वन गमन को चल पड़े,
लिये ठहाका घोर कष्ट से भर आयी।
राम धरा पर नंगे पग चले जब,
मन्थरा के वक्र देह पर उभर आयी।।
बन्द कोठरी में करके,
घनघोर तिमिर में चली गयी।
छल प्रपंच हो प्रबल कितना ही
ग्रीवा सच की ना झुक पायी।।
मन के रावण का वध कर, नव बेला थी कम नहीं।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
जग के जन सभी धिक्कार रहे,
मन मन्थरा मार विचार रही।
नयनों के अंश्रू सूख गये,
चौदह वर्ष प्रभु जप में टार रही।।
जब सुनी मंथरा अंधरों के कानों से,
श्रीराम अयोध्या पधार रहे।
अपने आंचल को फैलाकर,
बोली जगपालक ही आधार रहे।।
आ राम मिले सब जन घर से,
सब जन हर्ष मनायें दिये जले।
मन्थरा की देख दीन दशा,
मां मां कह अंकभर लिये मिले।।
सम्बन्धों को ठगना, दुष्कर्मों से कम नहीं।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
मानव होकर उसने भी,
प्रपंचों को भूल न पायी।
रानी की चेरी होकर भी
निस्सीम प्रेम सबसे पायी।।
अपवादों के क्या कहने,
विपदाओं में सब सीखा।
नारी के रूप कई हैं जग में,
मां-बहन, पत्नी, दादी सरीखा।।
दुर्गम कानन ने राम को,
मर्यादा है सिखलायी।
अत्याचारी अताताइयों को,
श्रीराम ने धरा से मिटायी।।
अनन्त बार नमन है उस मां को,
जिसने निज स्वार्थ-सिद्धि को मिटा दिया।
कहे!निराला परमार्थ सिद्धि की ख़ातिर ही,
राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया।।
मन के रावण से चिंतित युग है, अविरल असत्य भी कम नहीं ।
पूज्य हैं श्रीराम जितने, भाव मन्थरा के कम नहीं।।
- दयानन्द त्रिपाठी निराला
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