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मार्कण्डेय त्रिपाठी

सहज रूप में जीना सीखें

स्वस्थ रहें और मस्त रहें  नित,
चिंता है किस बात की ।
सहज रूप में जीना सीखें,
फिक्र है क्यों दिन, रात की ।।

चाहे कोई बहुत पढ़े हों ,
या रखते हों थोड़ा ज्ञान ।
वर्ष चालीस तक आते-आते,
हो जाते हैं एक समान ।।

रूप, कुरूप दोनों सम दिखते,
उम्र हुई जब बन्धु पचास ।
चेहरे पर झुर्रियां दिख जातीं,
पाउडर, क्रीम भले हों खास ।।

भले कोई हो उच्च पदों पर,
या हो निम्न पदों पर भ्रात ।
साठ वर्ष में सब सम होते ,
हिलने लग जाते हैं दांत ।।

बहुत बड़े हों अथवा छोटे ,
घर लगते हैं एक समान ।
हड्डियां दुखती हैं सत्तर में,
लगता निकल रहे हैं प्रान ।।

अस्सी वर्ष की आयु में मित्रों,
सम होते निर्धन, धनवान ।
कहां और कैसे खर्च करें धन,
इसका तनिक न रहता ध्यान ।।

नब्बे वर्ष तक गर जीएं तो,
शयन, जागरण एक समान ।
याददाश्त ढीली पड़ जाती,
टिकता नहीं कहीं पर ध्यान ।।

बहुत कारुणिक दशा हो जाती,
यदि कोई जीता है सौ वर्ष ।
यह जीवन की सच्चाई है,
इसमें ही विषाद और हर्ष ।।

मन भर सुनते हैं सब जन सच,
टन भर देते हैं प्रवचन ।
कण भर ग्रहण स्वयं करते हैं,
ऐसा ही है यह जीवन ।।

चार रोटी,दो जोड़ी कपड़े ,
बस जीवन हित काफी हैं ।
जरूरतें जितनी कम होतीं,
उतना ही सुख वाकी है ।।

गाड़ी, बंगले, प्लाट अहर्निश,
करते रहते हैं बैचैन ।
कठिनाई से प्राण निकलते ,
मिट जाते सारे सुख, चैन ।।

दस रुपए हों या हों करोड़ों,
मर जाने पर हैं किस काम ।
किनके लिए बचाते हो तुम,
त्याग दिए चिंतन, आराम ।।

भौतिक सुख बैचैन कराते,
आध्यात्मिकता में है शांति ।
अपने को पहचानो प्यारे,
मिट जाएगी सारी भ्रांति ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी

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