अफसोस ताउम्र रहा हमको इस बात का।
जवाब हमको न मिला खुद के सवालात का।।
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रिश्तों मे जद्दोजहद थी अपने थे अजनबी।
हम मोहरा बन के रह गये शतरंज की बिसात का।।
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खामोशियों की चादरें कुछ इस तरह से ओढ ली।
बस हश्र देखते रहें दम टूटते जज्बात का।।
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सियासत की भेंट चढ़ गयी मेरे इश्क की दास्ताँ।
कुछ मायने ही समझ न सके हम मुहब्बत के तिलिस्मात का।।
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जुगनुओं की मानिन्द ही हम करते रहे रोशनी।
दिन का सूरज ढल गया अब सामना है रात का।।
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ऐ ज़िन्दगी तू ही हमे अब आजमाना छोड़ दे।
वक्त गुजर गया देखो अब मुकर्रर मुकालात का।।
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अनूप दीक्षित"राही
उन्नाव उ0प्र0
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