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विजय कल्याणी तिवारी

/ कुहासा घना है /
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रखो सावधानी कुहासा घना है
तू प्रात से ही क्यों फिर तना है ।

सोकर उठा है नही जागता है
सच है कि सारा शहर अनमना है।

किनारे पड़ा है दुखी भाव लेकर
सदा से दुखों का दुलारा बना है।

कठिन आँसुओं को पीकर गुजारा
किसे दुख सुनाएं कुटिल वर्जना है।

मनुज का मनुज से रिश्ता निराला
विधाता तेरी यह कठिन सर्जना है ।

मनाते रहे हम सदा से उन्हें ही
अपितु आजकल अपना उनसे ठना है।

विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छ.ग.


/  रात रात भर जगते हैं  /
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आँखें हैं कि रात रात भर जगते हैं
किसे बताउं अंतस अगन सुलगते हैं।

प्रेम - प्रीत का बिरवा काटा जड़ से
बात बात पर लड़ते और झगड़ते हैं।

बहुत सहेज सींच कर रख्खा उपवन को
फिर भी जाने अनगिन पत्ते झड़ते हैं ।

आने वाला समय साधना मुश्किल है
प्रकृति के अवयव ये बातें कहते हैं ।

जिनका सब कुछ वे निर्वासन भोगें
शीश महल मे युवा तुर्क अब रहते हैं।

अपने दिये वचन से फिरना आम बात है
कदम कदम पर छलिया बनकर छलते हैं।

अधोपतन के पथ पर चलने वाले हैं जो
ऐसे दुर्जन फिर कब कहाँ सम्हलते हैं ।

विजय कल्याणी तिवारी, बिलासपुर छ.ग।

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