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आमदो आवाम में अलख जगानी चाहिए- दयानन्द त्रिपाठी निराला

ग़ज़ल - आमदो      आवाम    में     अलख     जगानी     चाहिए।।

तोड़ना  है   क्षितिज  को   तूफ़ान  आनी   चाहिए,
इन   पुराने   मौसमों  में   ज्वार   आनी   चाहिए।।

हो     गया    बस    बन्द    कमरे    में    सिसकना,
आज सड़कों पर निकल  इतिहास  जानी  चाहिए।।

विष    का    दरिया    आज    फैला    है    जहां   में,
मंदिरों औ मस्जिदों से कूबकू में प्यार आनी चाहिए।।

बिखरते   टूटते    उरयां    उम्मीदों   को    लिए   अब,
जिन्दा   लाशों  की  खूं  में    उबाल  आनी   चाहिए।।

पक्ष   और   प्रतिपक्ष   जब   लड़ने   लगे   हों   लोभ  में,
तब   समझ   लो   नेपथ्य   में   आग  लगानी   चाहिए।।

तख्त  तेरे  हाथ  में  हैं  शक्तियां   तुझमें   समाहित,
वेदना करुणा भरी आंसुओं से बाढ़ आनी चाहिए।।

त्याग   का  अब   दिन   गया   आघात  भी   ऐसे  करो,
बीच  सागर  से  हवा  का  रुख  बदल  जानी  चाहिए।।

सिर्फ     हंगामें     से     बदलता     है    नहीं    कुछ,
आमदो    आवाम   में   अलख    जगानी    चाहिए।।

वुस्अते    चिंगारियों   से   सय्याल   से   दश्ते   जली,
चल निराला थाम दामन  तृषित प्रलय आनी चाहिए।।

शब्दार्थ:-  कूबकू - जगह-जगह, नेपथ्य- पर्दे के पीछे, उरयां - नंगा या नंगी, आमदो - आने जाने, आवाम- जनता या सब लोग, वुस्अते - फैलाव या फैलना, सय्याल - तरल, दश्ते - करामाती का जंगल, तृषित- विशेष कामना रखने वाले या प्यासा।
                दयानन्द त्रिपाठी निराला

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