*सुनो न कान्हा*
कब तक भटकूँगी मैं कान्हा
उलझ रहीं हूँ इस सवाल में।
लख चौरासी के फेरे में
मोहमाया के जंजाल में।।
दिखने लगी मुझे तो कान्हा
हर -सू काजल की ही कोठरी।
मैला ना हो जाये अँचरा
हरदम रहती हूँ डरी डरी।।
संभल संभल कर चलती हूँ
फिसलने भरी है राहों में।
आई तेरे दर पर कान्हा
रखलो अपने इन चरणों में।।
🙏🌹 *सुप्रभात* 🌹🙏
*ऊषा जैन कोलकाता*
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