*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
*ठंडी*
ठंडी यह अति की बढ़ी , काँपे सारे लोग ।
बैठ रजाई खा रहे , पौष्टिक सारे भोग ।
पौष्टिक सारे भोग , घेरता आलस आया ।
सूर्य देव हैं लुप्त , कुहासा ऐसा छाया ।
कह स्वतंत्र यह बात , सूर्य अब बना घमंडी ।
छिपता बादल बीच , देख कर ऐसी ठंडी ।।
ठंडी का मौसम रहे , माह दिसम्बर खास ।
माह जनवरी फरवरी , क्रमगत होता ह्वास ।
क्रमगत होता ह्वास , ठंड का लुत्फ उठाओ ।
तिल गुड़ खाओ खूब , मित्र जन चाय पिलाओ ।
कह स्वतंत्र यह बात , बनो मत अब पाखंडी ।
बैठो मित्रों साथ , लगे आनंदित ठंडी ।।
ठंडी से कुछ त्रस्त हो , बैठे घुसकर आज ।
कुछ जन जा कश्मीर में , देखें बर्फ मिजाज ।
देखें बर्फ मिजाज , मस्त हो घूमे सारे ।
हिम आँचल कश्मीर , पर्यटक दिल यह वारे ।
कह स्वतंत्र यह बात , टेकते हैं वह डंडी ।
जो हैं शक्ति विहीन , उन्हें बहु लगती ठंडी ।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
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