स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया
घमंडी
रहे घमंडी जब मनुज , होता साथ विनाश ।
भ्रम में सोचे जीव यह , छू लेगा आकाश ।
छू लेगा आकाश , स्वयं को ऊँचा माने ।
बाकी सारे निम्न , किसी को क्यूँ पहचाने ।
कह स्वतंत्र यह बात , बने जीवन पाखंडी ।
खुले पतन का द्वार , जहाँ पर रहे घमंडी ।।
हुआ घमंडी शत्रु जब , पाया वह परिणाम ।
समझ न पाया वो कभी , प्रभु ही हैं श्री राम ।
प्रभु ही हैं श्री राम , भूल सीता हर लाया ।
धरे शत्रु का भाव , राम को शत्रु बनाया ।
कह स्वतंत्र यह बात , अगन बन जले प्रचंडी ।
रावण का यह पाप , सदा वह रहा घमंडी ।।
भाव घमंडी जब बढ़े , बिगड़े घर अरु द्वार ।
चहूँ दिशा आतंक हो , फैले बस व्यभिचार ।
फैले बस व्यभिचार , लूट अरु मार कराए ।
अहम् स्वयं का वास , पतन का मार्ग दिखाए ।
कह स्वतंत्र यह बात , बने मन भाव शिखंडी ।
बुद्धि भाव का फेर , कराता युद्ध घमंडी ।।
मधुशंंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें