तुलसी
विधा-कविता
घर के आंगन में तेरे रहती हूँ,
नाम मेरा है तुलसी।
कहते हैं सब कृष्णप्रिया मुझे,
में तो हूँ उनकी दासी।
क्यारी में जल डाल, कोई मुझको सींचे।
और भोर संध्या को दीप जलाकर, कोई देवसम पूजे।
किसी के लिए मैं, केवल इक पौधा साधारण।
तो किसी के लिए, मेरे पत्ते हैं औषधि।
किसी के लिए, शुभता का प्रतीक मैं।
तो किसी के लिए मैं, इक अध्यात्मिक निधि।
वृंदा रूप में सतीत्व गवां, दिया था श्राप विष्णुजी को।
बन गए पाषाण भगवन,और वृंदा चली अग्नि को।
हुई राख इक पौधा पनपा,
नाम दिया विष्णुजी ने तुलसी।
पाषाणरूप में कहलाये सालिग्राम,
और तुलसी उनकी प्रियसी।
नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित
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